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अंग्रेज भक्ति पर आक्रोश

ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज की अंग्रेज भक्ति पर आक्रोश करते हुए आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि इन लोगो में स्वदेश भक्ति बहुत कम है। ईसाइयों के आचरण बहुत से ले लिये हैं। अपने देश की प्रशंसा अथवा पूर्वजों की प्रशंसा करनी तो दूर, वे तो उनकी भर पेट निन्दा करते हैं। वे कहते हैं कि अंग्रेजों के अतिरिक्त तो सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान हुआ ही नहीं। आर्यावर्तीय लोग सदा से मूर्ख ही थे। इनकी उन्नति कभी नहीं हुई।

निश्‍चय ही देश के स्वाभिमानी नागरिक के लिए ये मान्यताएं अपमानजनक हैं। इस प्रकार की मान्यता रखने वाले देशभक्त नहीं बल्कि विधर्मियों के चाटुकार और खुशामदी कहे जा सकते हैं। ब्रह्मा से लेकर अब तक आर्यावर्त में बहुत से विद्वान हो गये हैं। उनकी प्रशंसा न करके अंग्रेजों की ही प्रशंसा करते रहना पक्षपात और खुशामद नहीं है, तो इसे क्या कहा जाए?•

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